Hindi Day Blog : हिंदी बने एक एक्स-फेक्टर (article in Hindi)




हिंदी बने एक एक्स-फेक्टर

Also published in Navbharat Times on 9th Sep 2018. ( on the occasion of Hindi Divas - 14th Sep )






जब वह बोली जाती है तो उर्दू के निकट लगती है, लिखी जाती है तो मराठी दिखती है । अपना नाम उसे फ़ारसी से मिला है और मूल उसका है संस्कृत । बहु-वर्णीय हमारी हिंदी भाषा - गंगा नदी के समान है। अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी जैसी अन्य अलग पहचानें हैं, अलग अलग चरित्र है, फिर भी समग्र रूप से गंगा है। 

हिंदी में थोड़े से उर्दू की शब्द मिलने से वह हिंदुस्तानी हो जाती है। नुक़्तों और महावरों से ज़रा शृंगार कर दो तो उसकी शक्ल बदल कर उर्दू की तरह हो जाती है।अंग्रेज़ी शब्दों का मिश्रण करने पर हिंदी हिंग्लिश बन जाती है। किसी भी रूप में हो, हिंदी का काम तो भारत में भारतियों के बीच और दुनिया भार में दक्षिण एशियाइयों के बीच संवाद और भावनात्मक जुड़ाव पैदा करना है।

एक भाषा से भी अधिक, हिंदी एक आंदोलन है। भाषाएँ तो इंसासों को बाँट भी सकती हैं, लेकिन आंदोलन लोगों को जोड़ता है। आंदोलन, किसी तयशुदा रास्तों पर नहीं चलते हैं। तो हिंदी का प्रचार-प्रसार भी जिन तीन शक्तियों का सबसे बड़ा योगदान रहा है, उसका अंदाजा शायद हिंदी के समर्थकों को भी नहीं था।

२००३ की मेरी नांत यात्रा ने मेरा परिचय हिंदी-प्रचार की पहली शक्ति से कराया नांत, फ़्रान्स का एक छोटा- सा ख़ूबसूरत  शहर है । यहाँ  के  एक फ़्रांसीसी रेडीओ चैनल ने मेरा इंटरव्यू लेने की इच्छा ज़ाहिर की। पर शर्त यह थी कि मेरे जवाब सिर्फ हिंदी में  होंगे  (ताकि उस साक्षात्कार की विशवसनीयता पर कोई शक ना करे )। अब बताइयें, उस छोटे से शहर में हिंदी से फ़्रेंच अनुवाद करने वाला दुभाषिया कहाँ से आता। आप विश्वास नहीं करेंगे कि अनुवादक ना तो फ़्रेंच थी, ना भारतीय  मूल की ; ना उसने भारत की ज़मीन पर कभी क़दम रखा था  । वह तो फ़्रान्स में रहनेवाली एक मालदीवीयन महिला थी , लेकिन साथ में वो हमारे बॉलीवुड की एक ज़बरदस्त आशिक़ भी थी ।  बॉलीवुड की असीम ताक़त से यह मेरा पहला साक्षात्कार हुआ ।

हिंदी के प्रचार की दूसरी शक्ति से वाक़िफ़ कराने के लिए मैं आपको ८० के दशक में अपने कॉलेज के दिनों में ले चलता हूँ। उन दिनों, दक्षिण भारत में हिंदी-विरोध की एक ज़बरदस्त लहर चल रही थी। लहर इतनी तगड़ी थी की द्रविड़ कार्यकर्ताओं (जिसमें कुछ सरकारी कर्मचारी भी शामिल थे) ने  स्वतंत्रता दिवस के एक समारोह में स्कूली बच्चों को “सारे जहाँ से अच्छा .......।” गाने  से   रोक दिया । क्यों ?  क्योंकि वे समझते थे कि “ हिंदी हैं हम, वतन हैं हिन्तोस्तान हमारा...”  वाली लाइन में “हिंदी” का मतलब “हिंदी भाषा” हैं, जबकि यहाँ “हिंदी” का अर्थ “भारतीय”  है। उस कट्टरपंथी दौर में दक्षिण भारत में लोगों से बात करना या अपनी बात कहना भी बहुत मुश्किल था क्योंकि वहाँ हिंदी/अंग्रेज़ी के जानकार बहुत कम मिलते थे । तब दक्षिण भारत के किसी भी क़सबे में हिंदी में संवाद के लिया मेरा विश्वसनीय सहायक होता था, उस इलाक़े का मुस्लिम परिवार । जी हाँ, भारत के दक्षिण और पूर्वी राज्यों में हिंदी की लगातार बढ़ती मौजूदगी में मुस्लिम समुदाय ने बहुत अहम भूमिका निभायी है ।

हिंदी के प्रयोग की वृद्धि में तीसरी बड़ी शक्ति बन कर उभरी है टेक्नॉलजी। धन्यवाद देता हूँ मैं वोट्स-एप का जिसकी वजह से आज ग़ैर-हिंदी भाषी भी रोज़ हिंदी पढ़ते हैं और जिसके कारण हिंदी भाषियों ने हिंदी में टाइप करना शुरू कर दिया है । हालाँकि लगभग सौ साल से भी पहले हिंदी और उर्दू को लिखने के लिए रोमन लिपि (इंग्लिश स्क्रिप्ट) के प्रयोग का सुझाव अंग्रेज़ों ने रखा था, जिसे भारतीयों ने उस वक़्त ठुकरा दिया था । पर यह टेक्नॉलजी की शक्ति है कि हिंदुस्तानी आज उसी सुझाव को अपना कर हिंदी में टेक्स्ट मेसेज कर रहे हैं (संयोगवश ही बताते चलें की मलेशिया और टर्की ने अंग्रेज़ों के इसी प्रस्ताव को मान कर सफलतापूर्वक लागू किया है। अब यह बात की भारत के  लिए यह अच्छा होता या  बुरा, यह हमेशा ही एक विवाद का विषय बना रहेगा )।

यह सही है की किसी भी आंदोलन के लिए कोई जाना-पहचाना या तयशुदा रास्ता नहीं हो सकता, लेकिन एक वक़्त आता है जब हर आंदोलन को जवाबदेह होना पड़ता है। हिंदी, अब विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली पाँचवी भाषा है । और समय आ गया है जब हिंदी के विकास के सबसे बड़े भागीदारों को -  यानी सरकार, मीडिया और मनोरंजन उद्योग को एक ज़िम्मेदार भूमिका निभानी पड़ेगी

हिंदी के प्रचार-प्रसार में बॉलीवुड ने निश्चित रूप की एक बड़ी भूमिका रही है । लेकिन यह भी सच है कि बॉलीवुड, हिंदी की एक बेहद सीमित शब्दावली का इस्तेमाल कर, हिंदी को एक संकरी बंद गली में खड़ा कर देता है। हिंदी के विकास में उसने कभी अधिक रुचि नहीं दिखाई । पर अब जैसे-जैसे हिंदी सिनेमा के दर्शक मैच्युर होंगे और जैसे-जैसे हिंदी सिनेमा का बाज़ार विश्व्यापी होगा, बॉलीवुड को अपने दर्शकों के लिए अधिक परिपक्व विषयों की ज़रूरत पड़ेगी। ऐसे विषयों को प्रस्तुत करने के लिए जटिल संवादों की ज़रूरत होगी। हिंदी का अविकास उस समय बॉलीवुड के लिए सबसे बड़ा रोड़ा बन जाएगा । अब तक बॉलीवुड ने ऐसी परिस्थितियों में विशेषणों और भाव-वाचक संज्ञाओं के लिए अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करके अपनी गाड़ी आगे बढ़ायी है । पर इसकी भी एक सीमा है । ऐसा लगातार करने से भाषा ही नहीं, विषय वस्तु की अपनी विश्वसनीयता भी संकट में पड़ जाती है  (सं : मेरा फ़्रेंच रेडीओ इंटरव्यू)।

“जटिल और अमूर्त से विषयों पर सरल हिंदी में बात नहीं की जा सकती है और गरिमापूर्ण हिंदी द्वारा आम जनता के साथ संवाद नहीं बनता।” ऐसे विचारों को मोदी जी और बच्चन साहब ने एक मिथक साबित कर पूर्णतया ख़ारिज कर दिखाया है। तकनीकी शब्दों के लिए अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल कर गरिमापूर्ण हिंदी बोलते हुए दोनों देश के सबसे सशक्त वक्ता के रूप में जाने जाते हैं। ८० एंड ९० के दशक में एच एम टी (हिंदी मीडियम टाइप) एक तिरस्करनुमा मुहावरा था। सार्वजनिक गोष्ठियों में हिंदी में बोलने में झिझक भी होती थी। लेकिन, मोदी जी और बच्चन साहेब ने हिंदी की गुप्त ताक़त को पहचाना । फलस्वरूप आज लोग बिजनेस कोनफ़रेंस में भी गर्व से हिंदी बोल सकते हैं। मोदी जी और बच्चन साहेब के  इस योगदान के लिए हिंदी हमेशा इनकी ऋणी रहेगी। और साथ ही साथ, इनके भाषण हिंदी-भाषा के विकास का काम भी करते हैं। मनोरंजन उद्योग को भी इन दोनो से सीखना चाहिए और हिंदी भाषा के विकास के लिए अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए । आज एंटर्टेन्मेंट विश्व भर में एक नए सॉफ़्ट-पावर के रूप में उभर कर आया है। इसलिए हिंदी का विकास भारत देश और भारतीय मनोरंजन उद्योग, दोनो के लिए अति-लाभकर सिद्ध होगा।

सरकार और मीडिया को १९६० के दशक की ग़लती नहीं दुहरानी चाहिए जब ज़ोर हिंदी के शुद्धीकरण पर था। हिंदी की मातृभाषा भले ही संस्कृत रही हो पर प्राकृत, पाली, अंग्रेज़ी, फ़ारसी, अरबी और तुर्की की मदद के बिना हिंदी अधूरी है। हिंदी का मूल-चरित्र एक मिली-जुली ‘बोली’ का ही है जब भी उसके इस चरित्र को बदलने की कोशिश होती है, वह जनता के साथ अपना संवाद खो देती है। थोपी हुई शुद्ध हिंदी बनाएँगे तो वह सिर्फ़ लोगों को बाँटने वाली और १९७० के दौर की हास्य फ़िल्मों और चुटकुलों के काम की ही होकर रह जाएगी ।

भगवान शिव की जटाओं से निकालने वाली शुद्ध गंगा, अब कहीं नहीं है।  गंगा की सफ़ाई करते हुए उसके जल को एक नवजीवन देने की ज़रूरत है ताकि गंगाजल शक्ति-समृद्ध रहे, भले उसका प्रयोग भारत में हो या विदेशों में, हिंदी के मामले में भी ऐसा ही कुछ है।



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