हिंदीभाषा : पर्दे से परिवर्तन
हिंदीभाषा : पर्दे से परिवर्तन
भाषा के लिए अक्सर उस की प्राचीनता उनके गौरव का विषय होता है। किंतु विश्व में सबसे अधिक बोले जानी वाली पाँच भाषाओं में सबसे युवा भाषा होने के कारण हिन्दी का यौवन ही उसका गर्व-बिंदु है। देवनागरी लिखावट वाली खड़ी बोली - जो हिंदी का वर्तमान प्रचलित रूप है - की उम्र २०० वर्ष से भी कम है। और इस छोटे से अंतराल में पिछले ७० सालों में हिंदी का रूपांतरण जिस रफ़्तार से हुआ है, वह अपनेआप में एक शोध का विषय तो है ही पर साथ-ही-साथ इस भाषा के यौवन का द्योतक भी है।
७० साल के इस सफ़ारनामे को मूर्त-रूप से तो कुछ बिरले भाग्यशालियों ने ही अनुभव किया होगा, पर बाक़ी लोग भी हिंदी सिनेजगत की नज़रों के ज़रिए से हिंदी के इस रूपांतरण के चश्मदीद गवाह बन सकते हैं।
४० और ५० के दशक की हर फ़िल्म में उस फ़िल्म की भाषा का झुकाव बड़ी आसानी से दृष्टिगोचर होता था - या तो भाषा उर्दूनुमा होती या फिर हिंदीरस से परिपूर्ण या फिर हिंदुस्तानी लहजे वाली। हिंदुस्तानीभाषा , हिंदी-उर्दू का एक नाप-तुला मिश्रण, उस समय लोकप्रियता के पायदान नम्बर एक पर थी। पर भाषा का झुकाव जो भी हो, दर्शकों का काम तो फ़िल्मों का आनंद उठाना था । साफ़-सुथरी हिंदीरस से परिपूर्ण देवदास (१९५५) हो या उर्दू लफ़्ज़ों की मिठास से भरी चौदहवीं का चाँद (१९६०), दर्शकों ने दोनो फ़िल्मों को बखूबी सराहा।
हिंदीभाषा का पहला रूपांतरण ६० के दशक में हुआ और इसकी वजह बनी नौकरी की तलाश में युवाओं का शहर की ओर बढ़ता हुआ पलायन। हिंदी फ़िल्म का दर्शक जो अब तक अपनी सोच और तौर-तरीक़ों से पूर्णतया ग्रामीण था, उसमें अब शहरी रंग का मिज़ाज आ चुका था। और फिर इस प्रवृत्ति को दर्शाती हुई फ़िल्में भी बनने लगी जिनमें एक-दो किरदार भाषा और पोशाक के नज़रिए से बिल्कुल ग्रामीण होते थे पर फ़िल्म का प्लॉट शहरी (रामपुर का लक्ष्मण - १९७२, डॉन – १९७८ )। और दर्शकों के बदलते रंग को मद्देनज़र रखते हुए लगभग सभी फ़िल्मों की भाषा का झुकाव हिंदुस्तानी की तरफ़ हो गया था, उर्दूनुमा और हिंदीरस से परिपूर्ण फ़िल्मों की संख्या कम होने लगी थी । फ़िल्मों के इस बदलते रंग से हिंदुस्तानीभाषा की लोकप्रियता ने तो नए आयाम छूए ही, पर अब वह निश्चित रूप से हिंदी के सबसे अधिक स्वीकार्य-रूप में जाने जानी लगी। फ़िल्म बिज़नेस के हिंदी भाषा पर प्रभाव की यह शुरुआत थी।
हिन्दीभाषा में दूसरा मोड़ ७० के दशक में आया जिसकी कहानी भी विचित्र है। ७० के दशक में मनोरंजन कर में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई जिसका सीधा प्रभाव पड़ा टिकट-दरों पर ; नतीजन सिनेमहाल से फ़ैमिली क्राउड कम होने लगा और साथ ही टैक्स-चोरी बढ़ने लगी। टैक्स-चोरी का दुष्प्रभाव ऐसा हुआ कि मप्र/राज/ दिल्ली/ यूपी/बिहार के फ़िल्म ट्रेड को फ़िल्म के कलेक्शन कम दिखाने में ज़्यादा मुनाफ़ा दिखने लगा। फलस्वरूप प्रोड्युसरों को टैक्स-पारदर्शकता में हमेशा अव्वल रहने वाले बम्बई से ( हिंदी राज्यों के मुक़ाबले) अब अधिक शेयर मिलने लगा। परिणाम यह हुआ की फ़िल्मों के प्लॉट और फ़िल्मों की भाषा पर बम्बईय्या हिंदी का प्रभाव बढ़ने लगा ( ऐन्थॉनी गोंसालविस – अमर अकबर ऐन्थॉनी)। भई, जैसा ग्राहक, वैसी फ़िल्म।
बढ़ते टैक्स से पैदा हुए विकारों को द्विगुणित किया रंगीन टी॰वी॰ और वी॰सी॰आर॰ के पदार्पण ने। फैमिली क्राउड को ‘हम लोग’ और ‘अड़ोस-पड़ोस’ जैसे टी॰वी॰ सीरीयल ज़्यादा पसंद आने लगे। साथ ही ओवरसीज़ बिज़नेस जो ७० के दशक में उफान पर था वह भी वी॰सी॰आर॰ के साये में ओझल हो गया था। साथ ही अत्यधिक टैक्स ने काले धन का वर्चस्व बढ़ा दिया। बिना काले धन के फ़िल्म बनना मुश्किल हो गयी थी। इन सभी कारणों से कई अच्छे और साफ़-सुथरे निर्माता/निर्देशक/लेखक फ़िल्मजगत से कटने लगे। और ऐसे में कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि ८० के दशक में भाषा के स्तर ने हिंदी फ़िल्मों में एक नया ‘ऑल टाईम लो’ देखा।
९० के सरकार की उदार नीतियाँ फ़िल्मजगत के लिए दो नए वरदान ले कर आयी – एक मल्टीप्लेक्स का आगमन और दूसरा ओवरसीज़ बिज़नेस का पुनर्जीवन। इनहीं वरदानों ( मल्टीप्लेक्स + ओवरसीज़) का ये भी प्रभाव रहा क़ि हिंदी फ़िल्मी का दर्शक अब पूर्णतया शहरी रंग में डूब चुका था । परिणामस्वरूप हिंदी भाषा ने एक और नया मोड़ लिया, उसका नया अवतरण ‘हिंग्लिश’ सामने आया। हिंग्लिश का प्रभाव इतनी तेज़ी से बढ़ा कि उर्दूनुमा, हिंदीरस वाली हिंदी और हिंदुस्तानी को हिंग्लिश ने कोने में खिसका दिया। यहाँ तक कि फ़िल्मों में अगर कम-से-कम एक गाना हिंग्लिश में ना हो तो प्रोड्युसरों को दर्शक/फ़िल्म-क्रिटिक द्वारा उनकी फ़िल्म “पुरानी-फ़िल्म” करार दिए जाने का ‘ख़ौफ़’ रहता था।
हिंग्लिश की बढ़ती लोकप्रियता और बढ़ते वर्चस्व से सभी प्रकार के भारतीयों/ अप्रवासी भारतीयों के आपसी कनेक्ट में बहुत बढ़ोतरी हुई है और साथ ही विज्ञापन और संचार में नयी सृजनशीलता भी देखने मिली है ; पर साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी के लम्बे और सुदृढ़ भविष्य के लिए हिंदी के मूल शब्दों को प्रचलित रखना भी ज़रूरी है। इसलिए फिर हिंदी को एक नए मोड़ की ज़रूरत है।
और अजीब बात देखिए, हिंदी के इस रूप में ले जाने के लिए भी फ़िल्म जगत का बिज़नेस ही साथ दे रहा है। पिछले १०-१५ वर्षों में हिंदी राज्यों में हिंदी कंटेंट ( फ़िल्म, टी॰वी॰ सीरीयल, वेब सीरीज़ आदि) के दर्शकों की तादाद में कई गुना इज़ाफ़ा हुआ है। अब प्रोड्युसर इतने बड़े मार्केट को तो नज़रंदाज़ नहीं कर सकते हैं। फिर, जैसा ग्राहक वैसी फ़िल्म। वेब सीरीज़ पर हिंदीरस वाली हिंदी भाषा भी अब सुनने मिलती है (पंचायत, रबींद्रनाथ टैगोर) जो संस्कृत-लिप्त ना होते हुए रसभरी भी है और भाषा-प्रभाव बनाए रखने के लिए चुनिंदा अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों की मौजूदगी बरकरार है । और सब-टाइटल डालकर निर्माताओं ने से रसभरी हिंदी से कारोबार में रोड़ा डालने वाले ख़ौफ़ को भी उखाड़ फेंका।
वेब सीरीज़ का वैश्विक बाज़ार बहुत विशाल है। अगर हमारे निर्माता/निर्देशक/लेखक उच्च स्तर का कंटेंट लगातार बनाते रहें तो फिर वो दिन दूर नहीं जब हमारी यह युवा हिन्दीभाषा मैनदेरीन चायनीज को पछाड़ कर विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन जाए। और शायद यही वक्त है और यही मौक़ा है इस शांतिप्रिय देश का विश्व को अपना संदेश देने के लिए - असली फ़तह भूमि क़ब्ज़ा करने में नहीं बल्कि दुनिया का दिल जीतने में है।
हिंदी दिवस के अवसर पर सभी पाठकों को एक प्यारा सा जय-हिंद।
- दीपेश सालगिया
( लेखक मुग़ल-ए-आज़म ( कलर ) एवं मुग़ल-ए-आज़म : द म्यूज़िकल के निर्माता हैं)
हिंदी दिवस के संदर्भ में आज, भारतीय सिनेमा, टीवी और ऑनलाइन पटल पर हिंदी के बढ़ते प्रचलन, लोकप्रियता और वर्चस्व की आपने सटीक, सरस तथा सारगर्भित व्याख्या की है. हार्दिक बधाई और हिंदी के प्रति अनुराग, गौरव और सम्मान के लिए आपका अभिनंदन!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सोनी जी। आपका स्नेहा हमेशा प्रेरणावर्धन का स्त्रोत्र रहा है
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद सोनी जी। आपका स्नेहा हमेशा प्रेरणावर्धन का स्त्रोत्र रहा है
ReplyDeleteहिंदी के प्रति आपकी सुंदर विचार से मन प्रफुल्लित हुआ युवा पीढ़ी के लिए आपके विचार प्रेरणादायक है
ReplyDeleteरेखा पतांगिया
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद, मासी।
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